• हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद (रजि.) कहते हैं कि हज़रत मुहम्मद ﷺ ने फरमाया “मज़हब के ज़रूरी (फर्ज़) कानून पर अमल करने के बाद (अर्थात नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज अदा करने के बाद) ज़ायज (वैध) तरीके से रूपया कमाना हर व्यक्ति के लिए फर्ज़ (ज़रूरी) है।" (तिबरानी, कबीर 6751, बैहकी, बा हवाला मुआरिफुल हदीस, खंड 7, पृ. 65)
इसलिए हर व्यक्ति को अपनी और अपने परिवार की प्राथमिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिए जायज़ तरीके से माल व दौलत कमाना फर्ज़ (अनिवार्य) है।
• कुरआन करीम की मुत्तद आयत से रिज्क कमाने की अहमियत का पता चलता है, कुरआन के मुताबिक ज़मीन को अल्लाह ने रिज्क हासिल करने का जरिया बनाया है तरीक और पूरसुकून इसलिए बना दिया गया है की लोग इसमें आराम कर सके और दिन को रोशन इसलिए किया गया कि इसमें लोग माश हासिल करे। (अरबी) सूरह मुज़म्मिल में हुसूल रिज्क के लिए सफर करने को ना सिर्फ दर्शहात कहा गया है बल्कि ऐसे लोगों की हिम्मत अफजाई की गई।
• अल्लाह तआला कुरआन शरीफ में फरमाता हैंः “फिर जब नमाज़ हो चुके तो अपनी राह लो और खुदा का फज़्ल (यानी अपनी रोज़ी-रोटी) तलाश करो और खुदा को बहुत याद करते रहो ताकि मुक्ति पाओ।" (सूरह जुम्आ, आयत 10)
अर्थात इबादत तो फर्ज़ हैं ही, मगर इबादत के बाद अल्लाह तआला चाहता हैं और उसका निज़ाम (प्राकृतिक व्यवस्था/नियम) भी है कि बंदा अपनी रोज़ी रोटी के लिए परिश्रम करता रहे।
• हज़रत मुहम्मद ﷺ की महफिल में बैठने से बढ़कर और क्या सौभाग्य हो सकता है। फिर भी कुछ असहाब सुफ्फा (गरीब सहाबा) को छोडकर सारे सहाबा कराम (रज़ि.) खेती बाड़ी या कारोबार वगैरा करते थे। और अधिकतर सहाबा (रज़ि.) आम दिनों में अपने समय का आधा हिस्सा व्यापार को और आधा हिस्सा मस्ज़िदे नबवी के लिए वक़्फ़ (समर्पित) करते थे (मुश्किल वक़्त में उनका तन मन धन सब कुछ इस्लाम के लिए समर्पित था) इसलिए हर मुसलमान के लिए अपनी और अपने घर वालों की आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिए ज़ायज तरीके से परिश्रम करना बहुत ज़रूरी है।
